लख लख बधाई…शहीद बाबा दीप सिंह जी का जन्म दिन दीया..

शहीद बाबा दीप सिंह जी का जन्म 26 जनवरी, 1682 ईस्वी को गाँव पहूविंड जिला श्री अमृतसर साहिब जी में हुआ ! बाबा दीप सिंह जी की माता का नाम जीऊणी एवं पिता का नाम भक्तू जी था ! बचपन में माता-पिता बाबा दीप सिंह जी को दीपा नाम से पुकारते थे ! 1699 ईस्वी की वैशाखी के शुभ अवसर माता-पिता के साथ बाबा दीप सिंह १६ वर्ष की तरुण आयु में आनन्दपुर साहिब गए एवं गुरू गोबिन्द सिंह जी के दर्शन के बाद आपने उन्हीं दिनों अमृतधारण किया वहीं रहने लगे !

गुरु गोबिन्द सिंह के आशीर्वाद से आपने भिन्न भिन्न दायित्वों पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया ! श्री गुरु गोबिन्द सिंह बाबा दीप सिंह जी से गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरबाणी लिखाई थी,क्योंकि बाबा दीप सिंह जी लिखते बहुत अच्छा थे ! अमृतर संचार और गुरमत प्रचार का काम दमदमी टकसाल का दायित्व था ! दीप सिंह जी ने गुरू आज्ञा अनुसार श्री गुरू ग्रँथ साहिब जी की चार प्रतियां तैयार की जिन्हें अलग अलग तख्तों पर स्थापित किया गया ! दीप सिंह जी ने इस विद्यालय का नाम गुरू आशा अनुसार दमदमी टकसाल रखा !

आनन्दपुर साहिब में ही बाबा दीप सिंह ने विद्या प्राप्त की एवं अपनी रूचि अनुसार शस्त्र विद्या सीखी ! बाबा दीप सिंह बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे, इसलिए उनको शीघ्र ही कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र चलाने में निपुणता प्राप्त हो गई !

सन् 1704 के प्रारम्भ में बाबा दीप सिंह के माता-पिता उनसे मिलने आए और गुरू जी से अनुरोध किया कि दीप सिंघ को आज्ञा प्रदान की जाए कि वह अपने विवाह के लिए घर वापिस उनके साथ चले ! परन्तु बाबा दीप सिंह का मन गुरू चरणों में रम गया था ! स्थानीय मर्यादा, कीर्तन, कथा, सिंहों की वीरता के कर्त्तव्य और उनकी वेशभूषा ने दीप सिंह जी का मन मोह लिया था, अतः वह इस वातावरण को त्यागकर घर जाने में असहनीय पीड़ा अनुभव कर रहे थे , परन्तु गुरू आज्ञा के कारण उन्हें अपने माता-पिता के साथ गृहस्थ आश्रम को अपनाने घर जाना पड़ा !

कुछ दिनों पश्चात् जब दीप सिंह जी का ‘आनंद कारज’ हुआ तभी उन्हें समाचार प्राप्त हुआ कि गुरूदेव ने मुगलों से भयँकर युद्ध करते हुए श्री आनन्दपुर साहिब जी छोड़ दिया है ! शीघ्र ही दीप सिंह जी ने गुरूदेव के विषय में पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त की एवं अपने सहयोगियों सहित गुरूदेव जी के दर्शनों को साबों की तलवंडी पहुँचे और श्री गुरू गोबिन्द सिंह साहिब जी के चरणों में शीश रखकर युद्ध के समय में अनुपस्थित रहने की क्षमा याचना की ! तब गुरूदेव ने दीप सिंह जी को अपने सीने से लगाकर कहा कि कोई बात नहीं, अब तुम्हारे जिम्मे और बहुत से कार्य हैं, जो कि तुमको भविष्य में पूर्ण करने हैं !

सन् 1709 में उन्होंने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर सरहिंद और सधौरा को मुगलों के अत्याचार से मुक्ति दिलवाई ! सन् 1733 में नवाब कपूर सिंह सिंहपुरिया ने उन्हें अपने एक दस्ते का मुखिया बना लिया ! सन् 1748 में जब खालसा सिक्खों ने मिस्लों को फिर से संगठित किया तो बाबा दीप सिंह ने शहीदन मिस्ल का नेतृत्व किया ! (मिस्लें छोटे-छोटे सिक्ख राजनीतिक क्षेत्र थे, जिनमें शामिल योद्धा मुगलों के अत्याचार से पीड़ित लोगों के लिए काम करते थे)

सन् 1746 ईस्वी में पँजाब के राज्यपाल यहिया खान ने दीवान लखपत राय के नेतृत्त्व में सिक्खों का सर्वनाश करने का अभियान चलाया तो उस सँकट के समय दीप सिंह जी ने अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ अपने भाइयों की सुरक्षा हेतु साबों की तलवंडी से कान्हूवाल के जँगलों में सहायता के लिए पहुँचे ! इस युद्ध को छोटा घल्लूघारा कहा जाता है !

हरमिंदर साहिब को अहमद शाह अब्दाली के कब्जे से छुड़वाने के लिए बाबा दीप सिंह अपनी सेना के साथ काफी बहादुरी से युद्ध कर रहे थे ! इस दौरान उन्होंने खालसा लड़ाकों से कहा कि उनका सिर हरमिंदर साहिब में ही गिरेगा ! तरनतारन तक पहुंचते-पहुंचते उनकी सेना में हज़ारों खालसा योद्धा शामिल हो चुके थे ! लाहौर दरबार में सिक्खों की इन तैयारियों की सूचना जैसे ही पहुँची, जहान खान ने घबराकर इस युद्ध को इस्लाम खतरे में है, का नाम लेकर जहादिया को आमन्त्रित कर लिया ! हैदरी झण्डा लेकर गाज़ी बनकर अमृतसर की ओर चल पड़े ! इस प्रकार उनकी सँख्या सरकारी सैनिकों को मिलाकर बीस हजार हो गई !

अफगान सेनापति जहानखान अपनी सेना लेकर अमृतसर नगर के बाहर गरोवाल नामक स्थान पर सिक्खों से टकराया, सिंघ इस समय श्री दरबार साहिब जी के अपमान का बदला लेने के लिए मरने-मारने पर तुले हुए थे ! ऐसे में उनके सामने केवल लूटमार के माल का आश्वासन लेकर लड़ने वाले जेहादी कहाँ टिक पाते ! वे तो केवल बचाव की लड़ाई लड़कर कुछ प्राप्त करना चाहते थे किन्तु यहाँ तो केवल सामने मृत्यु ही मँडराती दिखाई देती थी ! अतः वे धीरे धीरे भागने में ही अपना भला देखने लगे !

सिक्खों ने ऐसी वीरता से तलवार चलाई कि जहान खान की सेना में भगदड़ मच गई ! जगह जगह शवों के ढेर लग गए ! जहान खान को सबक सिखाने के लिए बाबा जी का एक निकटवर्ती सिक्ख सरदार दयाल सिंह कुछ सिखों का एक विशेष दल को लेकर शत्रु दल को चीरता हुआ जहान खान की ओर लपका परन्तु जहान खान वहाँ से पीछे हट गया, तभी उनका सामना यकूब खान से हो गया, उन्होंने उसके सिर पर गुरज गदा दे मारा, जिसके आघात से वह वहीं ढेर हो गया !

दूसरी तरफ जहान खान का नायब सेनापति जमलशाह आगे बढ़ा और बाबा जी को ललकारने लगा ! इस पर दोनों में घमासान युद्ध हुआ, उस समय बाबा दीप सिंह जी की आयु 75 वर्ष की थी, जबकि जमाल शाह की आयु लगभग 40 वर्ष की रही होगी ! उस युवा सेनानायक से दो दो हाथ जब बाबा जी ने किए तो उनका घोड़ा बुरी तरह से घायल हो गया ! इस पर उन्होंने घोड़ा त्याग दिया और पैदल ही युद्ध करने लगे ! बाबा जी ने पैंतरा बदलकर एक खण्डे का वार जमाल शाह की गर्दन पर किया, जो अचूक रहा ! बाबा दीप सिंह जी और  जमाल शाह ने एक दुसरे पर वार किया दोनों की गर्दने कट गई दोनों पक्ष की सेनाएं यह सब कुछ देखकर दंग रह गई !

तभी निकट खड़े दयाल सिंघ ने बाबा जी को ऊँचे स्वर में चिल्लाकर कहा: बाबा जी,बाबा जी, आपने तो रणभूमि में चलते समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपना सिर *श्री दरबार साहिब* जी में गुरू चरणों में भेंट करूँगा, आप तो यहीं रास्ते में शरीर त्याग रहे हैं ?

जैसे ही यह शब्द मृत बाबा दीप सिंह जी के कानों में गूँजे, वह उसी क्षण उठ खड़े हुए और उन्होंने आत्मबल से पुनः अपना खण्डा और कटा हुआ सिर उठा लिया ! बाबा दीप सिंह जी *एक हथेली पर अपना सिर धर और दूसरे हाथ में खण्डा* लेकर फिर से रणक्षेत्र में जूझने लगे ! जब शत्रु पक्ष के सिपाहियों ने मृत बाबा जी को शीश हथेली पर लेकर रणभूमि में जूझते हुए देखा तो वे भयभीत होकर, अली अली, तोबा तोबा, कहते हुए रणक्षेत्र से भागने लगे और कहने लगे कि हमने जीवित लोगों को तो लड़ते हुए देखा है परन्तु *सिक्ख तो मर कर भी लड़ते हैं* ! हम जीवित से तो लड़ सकते हैं, मृत से कैसे लड़ेंगे ?

यह अद्भुत आत्मबल का कौतुक देखकर सिक्खों का मनोबल बढ़ता ही गया, वे शत्रु सेना पर दृढ़ निश्चय को लेकर टूट पड़े ! बस फिर क्या था, शत्रु सेना भय के मारे भागने में ही अपनी भलाई समझने लगी ! 15000 से ज्यादा जानें गवा कर शत्रु सेना मैदान से भाग गई ! इस युद्ध में सिक्खों की जीत हुई ! बाबा दीप सिंघ जी श्री दरबार साहिब जी की ओर आगे बढ़ने लगे। श्री दरबार साहिब जी की परिक्रमा में वह आकर गिरे ! बाबा दीप सिंह जी ने अपना शीश परिक्रमा में इस तरह टिका दिया कि बाबा जी हरमंदिर साहिब की तरफ़ मत्था टेक रहे हों। इस तरह आप ने अपना शीश गुरु जी के चरणो में भेंट करके शहीद हो गए !

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