देहरादून, प्राइवेट हेल्थ सेक्टर में चल रहे इस खेल से कभी न कभी आपका भी वास्ता जरूर पड़ा होगा। ये एक छोटा सा उदाहरण है कि किस तरह मरीजों पर बिना वजह का दबाव डाला जा रहा है। व्यक्ति अपनी बीमारी से तो त्रस्त है ही, उसे इस मर्ज से भी जूझना पड़ रहा है। राजधानी में संचालित डायग्नोस्टिक लैब व चिकित्सकों के बीच खुला खेल चल रहा है। डॉक्टर जिस सेंटर या लैब पर जांच की सलाह देते हैं, उसके अलावा दूसरी जगह की रिपोर्ट स्वीकार ही नहीं करते।

निजी पैथोलॉजी लैबों से कमीशन के चक्कर में शहर में निजी प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर अन्य किसी लैब से कराई जांच रिपोर्ट को सिरे से खारिज करने में जुटे हैं। इसके लिए डॉक्टर मरीजों को रिपोर्ट क्रॉस चेक करने की दलील देते हैं, लेकिन इसके पीछे निजी लैबों के साथ साठगांठ के खेल में जेब मरीजों की कट रही है। इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन ने रेडियोलॉजी और पैथोलॉजी की भी जांच के बदले डॉक्टर को किसी भी तरह का इंसेटिव देने पर रोक लगा रखी है। पर ये खेल बदस्तूर जारी है। मरीज जैसे ही डॉक्टर के पास जाता है, वह कई-कई जांच लिख देते हैं। इसके साथ ही अधिकतर डॉक्टर यह भी बताते हैं कि जांच करानी कहां से है। यदि दूसरे लैब से जांच कराई है, तो डॉक्टर उसे नहीं मानते हैं। मरीज कभी दूसरे डॉक्टर के पास जाता है, तो नये सिरे से सभी जांच कराई जाती हैं। इसका खामियाजा सीधे मरीजों को भुगतना पड़ रहा है।

केस-1 

विकासनगर निवासी विशाल अपनी पत्नी को शहर की एक गायनोकोलॉजिस्ट के पास दिखाने ले गए। कुछ समय पहले ही उन्होंने ढाई हजार रुपये खर्च कर पत्नी का होल बॉडी चेकअप कराया था। पर डॉक्टर ने इन रिपोर्ट को देखने से साफ मना कर दिया। उन्हें एक लैब का नाम बताया और वहां से जांच कराने को कह दिया। जहां विशाल को 3200 रुपये फिर खर्च करने पड़े।

केस-2 

जोगीवाला निवासी मनीषा गर्भवती थीं। गर्भावस्था के दूसरे माह में उन्हें ब्लीडिंग होने लगी। जिस पर उन्होंने नजदीक ही एक एमबीबीएस डॉक्टर को दिखाया। जिन्होंने उन्हें अल्ट्रासाउंड कराने की सलाह दी। मनीषा ने 1400 रुपये खर्च कर अल्ट्रासाउंड कराया। इसके तुरंत बाद वह शहर की एक गायनोकोलॉजिस्ट को दिखाने गईं। जिन्होंने दो दिन पहले कराए गए अल्ट्रासाउंड को देखने से भी मना कर दिया। उन्हें दोबारा अल्ट्रासाउंड कराने को कहा।

अनावश्यक जांच से बढ़ रहा आर्थिक बोझ 

डॉक्टर तीन प्रकार से बीमारी को डायग्नोस कर सकते हैं। क्लिनिकल, पैथोलॉजिकल व रेडियोलॉजिकल। लेकिन, वर्तमान समय में क्लिनिकल डायग्नोस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मरीज के अस्पताल या क्लिनिक पहुंचते ही चिकित्सक उसे कई-कई जांच लिख देते हैं। जिस जांच की आवश्यकता नहीं है, वह भी करा ली जाती है। इससे मरीजों पर आर्थिक बोझ बढ़ जाता है। कुछ बरस पहले जब कोई मरीज अस्पताल आता था तो डॉक्टर बात करके और उसकी नब्ज देखकर बीमारी की पहचान कर लेते थे। मगर आज मरीज को देखते ही डॉक्टर दर्जनों महंगे टेस्ट की फेहरिस्त थमा देता है। अनावश्यक जांच पर अंकुश लगाने के लिए अमेरिका और यूरोपीय देशों में कड़े दिशा-निर्देश लागू हैं। पर हमारे यहां अभी तक भी कोई ठोस व्यवस्था नहीं बन पाई है।

सरकारी अस्पतालों से भी जुड़े हैं तार 

मरीजों की अनावश्यक जांच कराने में सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक भी पीछे नहीं हैं। मरीजों का बिना परीक्षण किए, बिना मौलिक खून की जांच किए, बिना प्रोविजनल डायग्नोस किए उच्च स्तरीय जांच लिखी जा रही हैं। डॉक्टर अस्पताल में होने वाली जांचों से इतर भी कई ऐसी उच्च स्तरीय जांच लिख देते हैं, जिसके लिए मरीज को निजी लैब का रुख करना पड़ता है। अफसरों ने कई बार सेवा नियमावली के तहत कठोर कार्रवाई व मेडिकल काउंसिल में शिकायत का डर दिखाया पर डॉक्टर बाज नहीं आ रहे। कई मामले तो ऐसे भी पकड़ में आए हैं, जहां अस्पताल में जांच उपलब्ध होने के बाद भी डॉक्टर ने मरीज को निजी लैब की पर्ची थमा दी।

प्राइवेट पैथोलॉजी की रिपोर्ट में भी अंतर

प्राइवेट पैथोलॉजी में जांच को लेकर भी कई बार सवाल खड़े हुए हैं। डीएवी पीजी कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक डॉ. हरबीर सिंह रंधावा हाल ही में इसके भुक्तभोगी बने। डॉक्टर ने उन्हें थायराइड और लिवर संबंधी जांच कराने की सलाह दी थी। उन्होंने अलग-अलग लैब में ये जांच कराई, तो इसकी रिपोर्ट भी अलग आई। उन्होंने लैब संचालक से शिकायत की तो उन्होंने लिपिकीय त्रुटि बताकर पल्ला झाड़ लिया। डॉ. रंधावा का कहना है कि ये मरीज की जिंदगी से खिलवाड़ करने जैसा है। वे इसके खिलाफ उपभोक्ता फोरम में शिकायत करने की तैयारी कर रहे हैं।

तुलना करें 

डाइग्नॉस्टिक सेंटर के रेट की तुलना कर लें। medifee.com जैसी कई वेबसाइट्स से आप अलग-अलग टेस्ट की जानकारी हासिल कर सकते हैं। यहां किसी भी टेस्ट का अधिकतम व न्यूनतम शुल्क दिया गया है।

खुद के अधिकार समझें 

आमतौर पर हरेक टेस्ट कुछ समय तक मान्य रहता है। इस बीच टेस्ट रिपीट कराने की जरूरत नहीं होती। अगर चिकित्सक इस दौरान की रिपोर्ट को मानने से इनकार करे तो आप दूसरे डॉक्टर के पास जा सकते हैं। इसी तरह अगर किसी खास लैब से टेस्ट कराने का दबाव बनाया जाए तो भी यह आपकी मर्जी पर है कि आप ऐसा करना चाहते हैं या नहीं। आप किसी भी प्रतिष्ठित लैब से टेस्ट करा सकते हैं।

क्या है नियम

कमीशन लेना व देना मेडिकल एथिक्स के खिलाफ है। ऐसे में मेडिकल काउंसिल इस पर कार्रवाई कर सकता है। आइएमए ने भी अपनी आचार संहिता में कमीशनखोरी को प्रतिबंधित किया हुआ है।

डॉ. संजय गोयल (अध्यक्ष आइएमए दून शाखा) का कहना है कि बिना मरीज की जांच कराए ये प्रमाणित कैसे होगा कि उसे बीमारी क्या है। सुप्रीम कोर्ट के भी इसे लेकर सख्त आदेश हैं। रही बात अनावश्यक जांच कराने की तो यह सही नहीं है। कोई भी चिकित्सक मरीज के भले के लिए ही जांच कराता है। सही से बीमारी डायग्नोस होगी तो यह मरीज के लिए ही अच्छा होगा। जहां तक डॉक्टर के किसी रिपोर्ट को ना मानने का प्रश्न है, इसकी शिकायत आप कर सकते हैं।

डॉ. एसके गुप्ता (मुख्य चिकित्साधिकारी) का कहना है कि अगर किसी रिपोर्ट से डॉक्टर असंतुष्ट है, तो वह दोबारा जांच करा सकता है। पर मरीज को बिना वजह परेशान किया गया है, तो वह गलत है। इसकी शिकायत आती है तो नियमानुसार कार्रवाई की जाएगी। जहां तक मरीज को डायग्नोस करने का सवाल है, कोई भी चिकित्सक रिस्क नहीं लेता। कारण ये कि बीते समय में कोर्ट केस बढ़े हैं। कोर्ट भी डॉक्टर से ही पूछेगा कि आपने किस आधार पर दवा दी।

डॉ. सविता गोयल (अध्यक्ष पैथोलॉजिस्ट एसोसिएशन) का कहना है कि ये मामला एथिक्स से जुड़ा है। मैंने प्रैक्टिस शुरू की तो कभी इसका हिस्सा नहीं बनी। कारण ये कि निम्न वर्ग के व्यक्ति को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। इस वजह से हमें शुरुआत में उपेक्षित भी रहना पड़ा। ये ऐसा मकडज़ाल है, जिसे तोड़ना बहुत जरूरी है।